Nov 14, 2006

खामोश पानी की एक धारा

खामोश पानी की,
एक धारा ....
गुमसुम,
उछलती - बिलखती,
कूदती - फांदती,
दौड़ती,
बिना आवाज़ ....
यहाँ भीतर,
मेरे अन्दर।

शिथिल चेतना,
की शिकार।
किसी खोई हुई,
पहचान का प्रकार।
बहती निरंतर ....
यहाँ भीतर,
मेरे अन्दर ।

आश्चर्य की !!

जीवन का एक,

पर्याय यह भी।

खामोश पानी की एक धारा ।

Nov 7, 2006

शोर का ज़ोर

कितने दिन बीत गए,
बस यूँही बैठे बैठे।
कदम उठाते ही नही,
किसी दिशा की ओर।

चिंतन की प्रक्रिया कुछ,
लम्बी बन पड़ी है।
हाथ लगता ही नही,
किसी चेतना का छोर

बाहर झांकता हूँ तो,
सब आसन लगता है।
अन्दर ही उलझी पड़ी है,
खोखले विचारों की डोर।

कुछ नही करता हूँ मैं,
दूर दीख रही है रौशनी।
कदाचित इसी तरह,
ध्वंस करगा मुझे यह शोर।

वही रात - दूसरी सुबह

आज की अनुभूति,
याद दिलाती है,
उन दिनों की।
वो दिन - जब हम सभी,
इन सितारों से ढकी,
छत के नीचे,
बैठे,
करते थे गुलज़ार,
उन रातों को,
जिनकी सुबह,
का ठिकाना ना,
हुआ करता था।

आज हम सभी,
जब उसी,
छत के नीचे,
बिखरे पड़े हैं,
दूर - दूर,
अलग - थलग,
अपनी अपनी सीमाओं में बंधे।
तब ज़रूर याद करते होंगे,
उन रातों को।

कितना निर्दयी दीख,
पड़ता है,
इश्वर का ये न्याय,
की मिलना है अगर,
तो बिछड़ने का ग़म,
साथ सहना हे पड़ेगा।

आश्वस्त हूँ,
तो यही सोचकर,
समझकर की,
चलो,
दूर ही सही,
पर सब जी रहे हैं,
प्रतिपल,
अग्रसर हो रहे हैं,
एक लक्ष्य की ओर।

काश ऐसा ही हो,
की मिले,
उन सबको,
वही मंजिलें जो,
सँजोकर राखी हैं,
हम सभी ने,
मन के उस कोने में,
जिसका शायद,
ठिकाना हमें ख़ुद,
ही मालूम नही।

अब अगर 'वोह' रातें,
आए भी तो,
एक ऐसा सवेरा,
लेकर,
जिसमे छिपी राखी हों,
साडी खुशिया,
नई आकांक्षाएं,
नए पड़ाव,
और नई दिशायें।

रातों से सुबह,
का सफर,
कभी अलग भी,
हो सकता है,
आज पता चला।

Jun 13, 2006

रंगों का औचित्य

हलकी पीली धूप,
दुधिया सफ़ेद ये पेज,
अजीब सी नीली स्याही।

धुंधली काली यादें,
कत्थई लाल दरवाज़े,
विस्मृत हरियाली।

चिडियों का भूरा शोर,
मटमैले रस्ते,
पहचाना हुआ सा,
चाय का रंग।

गुलाबी किलकारियां,
बैंगनी चेतना,
चालक पाउडर सी फैली धुंध,
और चाँदनी से ठंडे चेहरे।

इन सभी रंगों के बीच,
काला - सफ़ेद मैं,
कोसता अपनी विवशता को।

May 17, 2006

उलझन

सब कुछ उलझा सा लगता है सीने में,
आता नही बाहर कुछ भी।

अक्षर न तो बैठते हैं और न ही गिरत हैं,
गुमशुदा हूँ उन "भूत" ख्यालों में अभी भी।

तनहाइयों का डर किसे नही होता?
उन त्योहारों के छूटने का ग़म है हमें भी।

तुम्ही को लिखा करता था मैं हमेशा,
आज बाजारों में स्याही नही मिलती मुझे भी।

विश्वास का अंत

सुबह हुई,
आइना देखा।
सब कुछ ठीक था।

फिर चक्र बढ़ा ।
किया काम,
वही जो होता आया है।

एक और चक्र बढ़ा ।
सोचा वही ,
जो सोचता आया हूँ।

चक्र की एक और बढ़त ।
बाहर निकला ,
गया वहीं जहाँ जाता हूँ।

अन्तिम चक्र ।
हुआ वही ,
जो होना था।

आख़िर विश्वास,
गया कहाँ।

Mar 11, 2006

मृत्यु

तुम और मैं जुड़वाँ हैं।
उस दिन जब,
मैंने पहली बार,
आँखें खोली।
उस दिन शायद,
तुमने भी जन्म लिया।

हमारा मिलना तो,
निश्चित ही था।
पर कुछ प्रश्न हैं।
मन में आज।
आज, जब मुझे,
एहसास हो रहा है,
हमारे मिलन का।

शायद अब एक ही,
प्रश्न उचित हो,
आज के सन्दर्भ में।
की,
कितनो और से साक्षात्कार,
होगा तुम्हारा,
मुझसे मिलकर।

बदलाव की उपेक्षा

असमर्थता, जब भरती खिन्नता,
मन में।
असहाए जब बनाती मुझे,
सबके समक्ष।
तब यही प्रश्न उठता है,
भेदता है, चीखता है,
मन में।
की क्या अब भी मैं,
विकसित नही कर,
पाया हूँ स्वयं को?

असमर्थता, जब दिखाती चेहरा,
मुझ को।
विकृत कर देती यह रूप,
सबके समक्ष।
तब यही पूछता मेरा मन,
भटकता है, भागता है,
यहाँ वहां।
की क्या अब भी पहचान,
अधूरी ही रह गई है,
मेरे स्वयं की?

अब और कितना लज्जित,
होना है मुझे?
और कितनी खामोशियों की,
गहराई का अवलोकन,
और कितनी घूरती आंखों,
का भार वहां करना है मुझको?

प्राकृतिक बदलाव आसान,
नही होता शायद।

तुम्हारी याद

आखिर कब तक
झोंकता रहूँगा मैं.
स्वयं को इस
आग में?
जो ना जाने कितने
जन्मो से जलती
आ रही है.
कभी न ख़त्म होने
वाली आग.

रह-रहकर भड़क
उठती है सीने
में.
धधकती है तो
कभी थमती ही नहीं.
परिणाम.
सुलग रहा हूँ
मैं हरपल
तुम्हारी याद में.

आज की रात का स्वरूप

फिर वही रात, 
आयी है अपनी बाहें बिछोये। 
लेने अपने आग़ोश में मुझे। 
करने प्रेम। 
देने ममता।
और सुलाने। 

फिर वही रात,
आयी है अपनी कालिमा संजोये। 
डूबने अपने गहन अंधकार में मुझे। 
दिखाने सपने। 
करने विवश। 
और रुलाने। 

फिर उसी रात के,
दो स्वरूपों में,
मैं तलाशता हूँ, 
एक ऐसी सुबह, 
जो जगाये नयी चेतना। 
नया उत्साह, 
नयी आवश्यकताएँ। 
और नया विचार। 

आख़िर कब बदलेंगी परिस्थितियाँ?


Mar 3, 2006

कह दिया मैंने

भ्रष्ट हूँ मैं.
कल्पना से परे,
सत्य से गंभीर,
खुद से दूर,
इस भीड़ भाड़ में.

कहता हूँ मैं.
"जय श्री राम"
"सत्यवचन"
"कर्म कर्म कर्म"
दिखावे के समय में.

रहता हूँ मैं.
बहुमुखी अस्तित्व लिए,
छल कपट ओढ़े,
संकीर्ण व्यसन भरे,
कलुषित नदी में.

बहता जा रहा हूँ.
संतुष्टि है की सब,
वही हैं,
वही मैं,
वही तुम,
वही वो.

दीख रहा है.
एक ऐसा उत्सव,
जहाँ सब नंगे हैं.
हाँ, सब ठीक है.

चिंतित : प्रत्येक क्षण

तुम्हे भूलना ही श्रेयस्कर है अब
दोनों के लिए.
पर जो कसक उत्पन्न होती है
कल्पनामात्र से
क्या वो शक्ति देगी?
अलग पथ पर
अलग दिशा में
पृथक पृथक
बढ़ने को?

कोशिश मैंने की है कई बार
अकेले ही.
पर जो टीस प्रकट होती है
मस्तिष्क में
क्या वो जीने देगी?
दुसरे साथी के साथ
दूसरी दुनिया में
कदम कदम
चलने को?

अनिभिज्ञ नहीं हूँ सच से,
देख सकता हूँ.
पर जो प्रचंड कडुवाहट होगी
हर सांस में
क्या वो चेतनाशुन्य नहीं करेगी?
प्रत्येक क्षण
प्रत्येक दिवस
घुट घुट
मरने को?

वो कहते हैं की
जो शुरू हुआ है उसका
अंत सुनिश्चित है.
बस अब एहसास हुआ
मैं क्यों हूँ चिंतित.