Mar 28, 2010

ख्वाबों के भी पर होते हैं ...

इस शहर में जहाँ
हर उड़ान की
इक अपनी
विवशता होती है .
वहां
बस ख्वाब ही तो हैं
जिनकी उच्छृंखलता का साहस
भरता है एक नयी
श्वास.
रोज़.. हर रोज़.

Mar 11, 2010

हिचकी

सोचने और
कुछ करने के
फासले को बढ़ता
देख,
मन ने सहसा
यह कलम उठाई
और झुका दी
इन खुशबूदार
पन्नो पर.

लिखा
फिर कुछ सोचा.
फिर लिखा और
रुक गया.

ये संकोच की
हिचकी,
मेरे विश्वास की तरह
शरमा रही है
शायद.

पर वक़्त पिघल रहा है.

Mar 10, 2010

क्यों?

क्यों?
ज़रूरी होता है कभी
एकाकी होना.
स्वयं कि सुनना और
उन्मुक्त बहना.

क्यों?
परवाह करके उनकी
असफलता सहना.
फिर कोसना और
निराश रहना.

क्यों?
कभी कभी मन का
विद्रोही बनना.
स्वयं का साथ पर
दूसरों को चोट देना.

लेकिन क्या यह सोचना
आवश्यक है?

क्यों विवश है मन आज
इन तुच्छ बातों को लेकर?

Mar 1, 2010

होली

चलो आज रंगों की ,
बदमाशी में भीग जायें ।

पीले के प्यार को लपेटें ,
लाल के गुस्से को पिघलाएं ।

बैंगनी की चटक ओढ़कर ,
गुलाबी शर्म में बहक जायें ।

नीले को आसमान से चुराएं ,
फिर हरे को घोल कर पी जायें ।

सारी बातें भूलकर ,
क्यों ना इन्द्रधनुष बन जायें ?

चलो आज रंगों की ,
बदमाशी में भीग जायें ।