साल का हाल
पूछते नही
बूझते हैं।
खेतों की दरारों से,
ब्याही बिटिया के अविरल ठहाकों से,
विरह गीत में फूटते आंसुओं से,
तो किसी खुली पड़ी नींव में उपजे पीपल के चार पत्तों से।
साल का हाल
बूझते नही
पूछते हैं।
रिश्तेदारों से त्योहारों में,
भारी होते व्यवहारों में,
बुझते इश्क़ की वफ़ादारी में,
तो किन्ही अटकती साँसों का लम्बी बीमारी में।
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