Sep 27, 2016

तुम्हारी फ़ोटोग्राफ़

फिर 
धर दबोचा, 
तुम्हारा संकोच। 
और चंद छींटे 
रोशनी के। 
निर्भीक, बेबाक़, उन्मुक्त। 

फिर 
वही कोशिश बटोरने की, 
तुम्हारा अनुभव। 
और कुछ टुकड़े
हमारे अपने। 

अमूमन यूँही 
क़ैद होती रही, 
तुम्हारी फ़ोटोग्राफ़।

Apr 24, 2016

शब्दों का मनमुटाव

शब्दों ने ठानी
कबड्डी की पारी
“अवहेलना” के दंगल में
सबकी आखिरी सवारी .

कुछ
गुट बन गए .

जैसे “किंकर्तव्यविमूढ़” ने उठाया
प्रतिष्ठा का झंडा
जब उज्जडों ने ताना
अशिष्टता का डंडा .
लाचार शब्दों ने तब संजोया
बचा-खुचा
स्वाभिमान
और विशिष्ट शब्द निचोड़ते रहे
अपना अभिमान .

शब्द वही ललकारते
जिनमे था सामर्थ्य
बिलखते, मुंह सिकोड़ते, गुर्राते
शब्द
जो निरर्थक.

“अवलोकन” की परिस्थिति
बनी विकट गंभीर
कदाचित शब्दों में मनमुटाव
करता “भाषा” अधीर.

इस विकृत आपा धापी में
शब्द लूटते मौज
और भाषा

अपनी “अस्मिता”.   

Feb 15, 2016

पगली

नखरों की फ्रॉक
उस पर
इतराती दो चोटियाँ.
खुरापाती पहेलियों
की खूब सारी सहेलियां.

इक पगली,
गुल्लकों में
संजोती
हर दोपहरी की कहानियां.
और कॉलेज के अड्डों
पर खींचती सबके कान.
जो रम जाये वही दोस्त
वरना नापे दूकान.

वो पगली,
लुढ़कती बढ़ चली
बिना हेलमेट,
बन हनुमान.
तोड़ने परबत और
खोजने पहचान.

जब मिली मुझसे
तो बस इतना कहा
"तुम कितने पागल हो".

Feb 5, 2016

आहट

कमरे में 
शायद कभी 
था इक दरवाज़ा . 

मासूम सा
आवारा . 

बदमाश सा
शर्मीला . 


एक बवंडर सा
बिदका हुआ .
सिर चढ़ा
उस आहट को .
दब चुकी है जो
फिसलती यादों में.