May 26, 2007

टुकडा


आज हँसी का एक टुकडा पाया,
छोटा ताज़ा, और गीला पाया।
सुंदर, चंचल और हल्का पाया।
लपक - झपक, उछल कूद करता पाया।

पर फिर उसने मुझे देखा,
मैंने उसे,
दोनों हँसे,
और आगे चल दिए।

सुबह का सन्नाटा

यह कैसी सुबह है?
सब शांत,
सब विरह,
सब सूना।
आख़िर वोः
आवाजें गई कहाँ?
पक्षी गए कहाँ ?
मंत्रों उचारण गए कहाँ ?
सब इतना शिथिल,
मानो बंद हवा ने,
रोक दी हो सांसें।

जैसे की निरर्थक हो जाना,
बिटिया की बिदाई के बाद।
ये कैसी सुबह है?

खोज

भूलता जा रहा हूँ मैं,

शायद अपनी गली का मकान।

भटकता फिर रहा हूँ मैं,

इन गुमसुम सन्नाटों के बीच।

खोजता फिरता हूँ मैं,

उस पहचान को शायद,

जो कभी मेरी थी ही नही।

नदियाँ जो बहती आयी हैं,

सदियों से,

समय को चीरती, भेदती,

और परास्त करती।

आज सूखने को हैं।

और इन सब बहावों के बीच,

एक स्थिरता सी बस गई है मुझमे।

जो ना रुकने देती है, और,

ना ही चलने देती है।

सम्भव है की शायद,

खो चुका हूँ मैं,

उस जीवन शैली को,

जो कभी मैंने जिया ही नही।

मौसम की धारा

गर्मी का एहसास,
उत्पन्न होता है,
धुप से नही
रुकी हवा से नही,
बंद कमरे से भी नही।
बल्कि जन्म लेता है
यहाँ अन्दर।
भीतर एक तपती आत्मा,
सुलगती है और पैदा करती है असहनीय गर्मी।

सर्दी का प्रकोप,
महसूस होता है,
बर्फीली हवाओं से नही,
गहन कुहरे से भी नही,
छिपे सूरज से भी नही,
सर्दी तो आती है,
तुम्हारी सांसें बनकर
रोम रोम को छूकर,
कंपकपाती हैं और,
गलाती हैं यह तीक्ष्ण सर्दी।

वसंत की चेतना,
क्षणभंगुर रहती हैं,
पतझर के भय से नही,
समयाभाव से नही,
प्रेम की विवशता से भी नही।
हरयाली तो बस सीमित हैं,
तुम्हारी आवाज़ तक।
जो प्रत्यक्ष हैं वर्तमान में,
ना एक क्षण आगे, ना एक क्षण पीछे।