Nov 15, 2010

इक कमरा

इक कमरा जिसमें
बिखरी हुई किताबें
धूल कि परत ओढ़े
सिसकती हैं.

इक कमरा जहाँ
दीवारों पर टंगे चित्र
किसी भीड़ वाली
सड़क का शोर हैं.

इक कमरा जिसके
पलंग, कुर्सी और
पानी कि बोतल को
इक अनिश्चित इंतज़ार है.

इक कमरा जिनकी
खिडकियों से दिखता
दूर रोशनियों का
श्रृंगार है.

उस कमरे से
आज बात हुई.

वो कमरा बीमार है.

Aug 22, 2010

तितर बितर

लम्हों की पहचान
उनके अस्तित्व
से परे
निर्भर होती है -
उन्ही लम्हों में
जीवित "मैं" और "तुम" पर.
एक पहचान ऐसी
जो जीने को
मजबूर कर दे.
एक ऐसी
जो कहे कि
अब बहुत हुआ.

Aug 15, 2010

समय

समय पिघला नहीं,
वो तो भाप बनकर
उड़ गया .

कुछ बदला,
हवा में.
शायद पारा बढ़ा.
और शायद कुछ बोझ.

मैं भी हुआ कुछ अलग.
शायद कमज़ोर.

समय की बर्फ को
जमाना हि एक
भूल थी शायद.
क्योंकि समय पिघला नहीं,
वो तो भाप बनकर
उड़ गया .

Apr 29, 2010

सफ़र

जाना तो है
कि मंज़िल मिली
नहीं अब तक.

आया था यहाँ कुछ
पाने,
कुछ संजोने,
कुछ बटोरने.

फिर रुका कुछ दिन
जिसमे मिला सबसे
थोडा स्नेह,
थोड़ी आशाएं
और थोड़ा विश्वास.

आज जा रहा हूँ,
लिए
कुछ हंसी कि बूँदें
और कुछ
अटूट रिश्ते.

क्योंकि
जाना तो है
कि मंज़िल मिली
नहीं अब तक.

Apr 18, 2010

लकीरों की परछाईं

यह सुबह थी
या शाम ?
लकीरों की परछाईंयों
का स्वरुप बदला
ना था.
कुछ काला
कुछ सफ़ेद
कुछ स्याह सा.
बस कुछ ही
रंग बचे थे,
इन लकीरों में.
ज़िन्दगी की
बारिश के बाद.

Mar 28, 2010

ख्वाबों के भी पर होते हैं ...

इस शहर में जहाँ
हर उड़ान की
इक अपनी
विवशता होती है .
वहां
बस ख्वाब ही तो हैं
जिनकी उच्छृंखलता का साहस
भरता है एक नयी
श्वास.
रोज़.. हर रोज़.

Mar 11, 2010

हिचकी

सोचने और
कुछ करने के
फासले को बढ़ता
देख,
मन ने सहसा
यह कलम उठाई
और झुका दी
इन खुशबूदार
पन्नो पर.

लिखा
फिर कुछ सोचा.
फिर लिखा और
रुक गया.

ये संकोच की
हिचकी,
मेरे विश्वास की तरह
शरमा रही है
शायद.

पर वक़्त पिघल रहा है.

Mar 10, 2010

क्यों?

क्यों?
ज़रूरी होता है कभी
एकाकी होना.
स्वयं कि सुनना और
उन्मुक्त बहना.

क्यों?
परवाह करके उनकी
असफलता सहना.
फिर कोसना और
निराश रहना.

क्यों?
कभी कभी मन का
विद्रोही बनना.
स्वयं का साथ पर
दूसरों को चोट देना.

लेकिन क्या यह सोचना
आवश्यक है?

क्यों विवश है मन आज
इन तुच्छ बातों को लेकर?

Mar 1, 2010

होली

चलो आज रंगों की ,
बदमाशी में भीग जायें ।

पीले के प्यार को लपेटें ,
लाल के गुस्से को पिघलाएं ।

बैंगनी की चटक ओढ़कर ,
गुलाबी शर्म में बहक जायें ।

नीले को आसमान से चुराएं ,
फिर हरे को घोल कर पी जायें ।

सारी बातें भूलकर ,
क्यों ना इन्द्रधनुष बन जायें ?

चलो आज रंगों की ,
बदमाशी में भीग जायें ।