Nov 7, 2006

वही रात - दूसरी सुबह

आज की अनुभूति,
याद दिलाती है,
उन दिनों की।
वो दिन - जब हम सभी,
इन सितारों से ढकी,
छत के नीचे,
बैठे,
करते थे गुलज़ार,
उन रातों को,
जिनकी सुबह,
का ठिकाना ना,
हुआ करता था।

आज हम सभी,
जब उसी,
छत के नीचे,
बिखरे पड़े हैं,
दूर - दूर,
अलग - थलग,
अपनी अपनी सीमाओं में बंधे।
तब ज़रूर याद करते होंगे,
उन रातों को।

कितना निर्दयी दीख,
पड़ता है,
इश्वर का ये न्याय,
की मिलना है अगर,
तो बिछड़ने का ग़म,
साथ सहना हे पड़ेगा।

आश्वस्त हूँ,
तो यही सोचकर,
समझकर की,
चलो,
दूर ही सही,
पर सब जी रहे हैं,
प्रतिपल,
अग्रसर हो रहे हैं,
एक लक्ष्य की ओर।

काश ऐसा ही हो,
की मिले,
उन सबको,
वही मंजिलें जो,
सँजोकर राखी हैं,
हम सभी ने,
मन के उस कोने में,
जिसका शायद,
ठिकाना हमें ख़ुद,
ही मालूम नही।

अब अगर 'वोह' रातें,
आए भी तो,
एक ऐसा सवेरा,
लेकर,
जिसमे छिपी राखी हों,
साडी खुशिया,
नई आकांक्षाएं,
नए पड़ाव,
और नई दिशायें।

रातों से सुबह,
का सफर,
कभी अलग भी,
हो सकता है,
आज पता चला।

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