असमर्थता, जब भरती खिन्नता,
मन में।
असहाए जब बनाती मुझे,
सबके समक्ष।
तब यही प्रश्न उठता है,
भेदता है, चीखता है,
मन में।
की क्या अब भी मैं,
विकसित नही कर,
पाया हूँ स्वयं को?
असमर्थता, जब दिखाती चेहरा,
मुझ को।
विकृत कर देती यह रूप,
सबके समक्ष।
तब यही पूछता मेरा मन,
भटकता है, भागता है,
यहाँ वहां।
की क्या अब भी पहचान,
अधूरी ही रह गई है,
मेरे स्वयं की?
अब और कितना लज्जित,
होना है मुझे?
और कितनी खामोशियों की,
गहराई का अवलोकन,
और कितनी घूरती आंखों,
का भार वहां करना है मुझको?
प्राकृतिक बदलाव आसान,
नही होता शायद।
No comments:
Post a Comment