May 17, 2006

उलझन

सब कुछ उलझा सा लगता है सीने में,
आता नही बाहर कुछ भी।

अक्षर न तो बैठते हैं और न ही गिरत हैं,
गुमशुदा हूँ उन "भूत" ख्यालों में अभी भी।

तनहाइयों का डर किसे नही होता?
उन त्योहारों के छूटने का ग़म है हमें भी।

तुम्ही को लिखा करता था मैं हमेशा,
आज बाजारों में स्याही नही मिलती मुझे भी।

विश्वास का अंत

सुबह हुई,
आइना देखा।
सब कुछ ठीक था।

फिर चक्र बढ़ा ।
किया काम,
वही जो होता आया है।

एक और चक्र बढ़ा ।
सोचा वही ,
जो सोचता आया हूँ।

चक्र की एक और बढ़त ।
बाहर निकला ,
गया वहीं जहाँ जाता हूँ।

अन्तिम चक्र ।
हुआ वही ,
जो होना था।

आख़िर विश्वास,
गया कहाँ।