Sep 28, 2018

दोपहर की खिड़की


खूँटी पर टँगी शर्ट 
इतराती, बलखाती 
दोस्त उन हवाओं की, 
जो दुबक कर, आहिस्ता - आहिस्ता  
घुसती, 
दरवाज़े की ओढ़ से  

वो पुश्तैनी दरवाज़ा 
झुँझलाता, गुर्राता 
मजबूर उन आवाज़ों का,  
जो उफन कर, 
बहती, 
मोहल्ले के मर्म से  

मोहल्ला, 
उसकी गलियाँ,
और उनमें से, 
गुज़रता वक़्त, स्थिर ही रहा 

अपितु, 
उस बंद कमरे में, 
बिछी तख़्त, साथ लगी दीवार की सीलन,
उससे सटी कुर्सी, के बग़ल का दरिचा, 
सबने महसूस की, 
एक उलझी कश्मकश, 
एक गूँगा मतभेद, 
और विभिन्न परिपक्वता । 

जैसे पापा का अद्भुत सारल्य,
और मेरी आकुल जटिलता