Dec 7, 2008

आना या ना आना

एक समय बाद,
रौशनी का मुरझाना,
बच्चों का बौराना,
और आवाजों का ठिकाना,
मिट जाना।
लेकिन वही पुराना,
तुम्हारा,
आना या ना आना।

फिर,
सोच का सिमटना,
व्यभिचार का पनपना,
चरित्र का हकलाना,
बौखलाना।
लेकिन वही पुराना,
तुम्हारा,
आना या ना आना।

अब,
इंतज़ार का सिसकना,
धैर्य का बिलखना,
करवटों की उत्तेजना,
और सबका यही पूछना की,
नींद,
तुम्हारी हट को कैसे मनाना।

Dec 2, 2008

आतंक का अट्टहास

अलसाते हुए ज़िन्दगी ने,
खोली,
जब आँखें,
ली अंगड़ाई,
और किया आविर्भाव इस दुनिया में।
तब,
सुनाई दी खिलखिलाहट।

ज़िन्दगी ने कुछ रूप,
बदले,
हुई विकसित,
मस्तिष्क,
और शरीर से।
तब सुनाई दिया रुंदन।

ज़िन्दगी हुई पड़ी है,
विकृत,
कृतघ्न,
और अग्रसर विनाश की तरफ़ आज।
तब,
गूंजता सुनाई देता है सिर्फ़ क्रूर अट्टहास।

Nov 26, 2008

मुर्खता की पराकाष्ठा

शाम होने को है,
दिये नही जलाये,
चूल्हा नही फूँका।
बस चारपाई बिछाई,
और करने लगे इंतज़ार।

इंतज़ार :-
उन दिनों का,
जो जल - बुझ चुके।
उन लम्हों का,
जो मर चुके।
उन जीवों का,
जो नश्वरता लाँघ चुके।

अक्ल का वरदान,
लुटाने के बाद।
बेसहारा,
जर्जर,
अकेली,
बिछाई चारपाई,
और सोचने लगी की कुछ बदले।

Aug 15, 2008

विवशता

इन उमसती शामों में,
उफनती वेदनाएं,
कहती हैं,
हर बुझते क्षण से,
की,
अब और नही,
और नही अब कह सकती मैं,
और नही अब तप सकती मैं,
और नही अब सज सकती मैं,
करके विवशता का श्रृंगार।

अब तो बुझा दो,
इन सिसकियों को, अपने,
बदलते वेग से।
बुझो नही अब जलो।
जलो और बिखेर दो आलोक,
यहाँ वहां,
सर्वत्र,
और खिलखिला दो मुझे।

May 1, 2008

विचलित मन की मनःदशा

इस बंद कमरे की,
भीनी ठण्ड के बीच।
इन कह्काशों की,
सचाई,
बोल रही है मुझसे,
की यहाँ क्या है तुम्हारा?

प्रेम से ऊँचा सच,
जो मैं देख ना पाया कभी,
आज समझकर उसको,
शांत कैसे हैं मन मेरा?

कहते हैं की सुबह का भुला,
शाम को आया तो,
अर्थ बना।
क्या मैं बन गया हूँ निरर्थक?

साक्षी है इश्वर मेरा,
जो समर्पण किया ह्रदय ने,
तुमको।
क्या उसका विश्वास जमा ना पाया मैं कभी?

विनती है मेरी तुम्हारे,
श्वेत स्वर्ण ह्रदय से की,
अपनाकर मुझको जीवन में,
क्षमा का सर्वोच्च हार पहना दो मुझे।