Aug 23, 2022

उम्मीद की उम्मीद से



शाम होने को है,

पर ना ही दिये जलाये,

और ना ही चूल्हा फूँका।

एक उम्मीद का तिरस्कार कर 

बस चारपाई बिछाई,

और पिरोने लगी बिखरी उम्मीदें। 


जली-बुझी बूढ़ी उम्मीदों के साथ, 

थोड़ी घमंडी अर्थहीन उम्मीदें। 

बिखरी परायी उम्मीदों के बराबर, 

वो सारी छोटी-छोटी उम्मीदें। 

और बीच-बीच में थोड़ी-थोड़ी 

झूठी बहकी उम्मीदें। 


अक्ल का वरदान,

लुटाने के बाद। 

बेसहारा, 

जर्जर,

अकेली,

एक उम्मीद का तिरस्कार कर 

बस बिछाई चारपाई,

और बुनने लगी उम्मीदें। 

बदलाव की। 


दूसरों की उम्मीद से,

फुसलाती और सहलाती 

स्वयं के अंश को।

इंतज़ार में उस सच्ची उम्मीद की,

जो मेरी खोज हो।


उम्मीद की उम्मीद से

थकी नही मैं,

बनी और बेशरम। 

बस एक आख़िरी उम्मीद की उम्मीद से। 


Mar 23, 2022

शर्म


दरवाज़े की घंटी 

कई बार बुदबुदाई। 

मैंने नींद भगायी,

शाम को देखा,

फिर बत्ती जलायी। 

वो तब भी नही आयी। 


दरवाज़ा खोला

तो वही खड़ा था। 

पार्सल वैसे,

जो कल लाया था। 


ख़ैर

कल ही के जैसे 

मेरे दोनो हाथों ने 

झपटे वो पार्सल और 

उसको नोटें थमायी। 

वो तब भी नही आयी। 


घंटी ने दुबारा दस्तक लगायी। 

अबकी था वो

जिसकी वजह से 

प्रतिदिन होती 

घर में सफ़ाई।

मुझे मिलता फ़िज़ूल समय,

और उसके मत्थे ज़रूरी पिराई। 


ख़ैर

कल ही के जैसे 

पलथी बिछाके, टीवी चलाया

शोर के साथ खाने को घोंटा

और नही एक कौर चबायी। 

वो तब भी नही आयी। 


तब भी नही जब, 

कल ही के जैसे 

पीछे से जाके 

चुपके से मैंने 

माँजते बरतनो की 

ज़रा सी क़तार बढ़ाई।  


पर

चुका वहीं जो पूछ लिया उससे 

भैया क्या है plan तुम्हारा?

उसने कहा सर

“भूख के साथ रोज़ यही खेलना। 

काम के बाद है मार्केट जाना

सब्ज़ियाँ लाना फिर उन्हें पकाना, 

तब खाना और सोना” 


आयी तब अचानक, 

शीतलहरी की तरह। 

रीढ़ से सीधे मर्म।

बर्फ़ बनाती

वो शर्म। 

Mar 19, 2022

बेचारी कविता


मैंने कविता लिखनी चाही, 

तो

कविता बिदक गयी।

दिल को छोड़ 

दिमाग़ में अटक गयी। 


मैंने भी हठ पकड़ ली।

लिखूँगा ज़रूर।

इस दिमाग़ का फ़ितूर। 


और फ़िर,

दिमाग़ तो है सर्वपरि,

कविता जो अटकी पड़ी

उसे मिनटों में गढ़ी। 


लेकिन कविता ठहरी चालाक 

समझ गयी दिमाग़ी ज़ोर।

दिल की बात को मरोड़कर,

कह गयी कुछ और। 


लिखी हुई उस कविता को 

खूब सजाया मंच पर। 

तब तालियाँ सबने बजायीं, 

दूसरों को देखकर। 


फिर भी अभिमान में,

समझी नही एक बात। 

कह गयी एकांत में,

कविता जो उस रात। 


कि, ग़र 

रखता उसे दिल में ही

तो वो बहती अपने आप। 

Jan 26, 2022

ठूँठा पेड़

   Flyover से उतरते ही 

दूर। वहाँ।  

निष्ठुर यातायात के ज्वार-भाटे में अड़ा

मेरा मित्र, मेरा प्रकाश स्तम्भ।

वृक्ष योनि से मुक्त।

वो एक सूखा पेड़। 


ना फूल उसमें, ना कोई फल,

और ना ही गहरी छाया। 

पत्तियों ने भी त्याग दिया जिसकी ठूँठी काया। 


जात नही, पहचान भी शून्य 

और नही परिजन का साया। 

इस एकाकी जीवन में उसने,

क्या खोया, क्या पाया। 


मिला क्या? बस 

काले-सुफ़ेद पन्नी के चीथड़े।

सुना क्या? बस 

सिसकती गाड़ियों की चीखें। 

देखा क्या? बस 

बसती-उजड़ती, निरंतर गिरती सभ्यताएँ। 


परंतु अचल रहा वो।

शालीन, तटस्थ

निर्भय, उन्मत्त। 

नही कूचा शहर से,

जैसे हम पलायित होते हैं। 

प्रतिकूल मौसमों से। 


वो।

मेरे साहस का प्रतिबिम्ब।

मेरे उत्साह का चिन्ह। 

मेरे अस्तित्व का अनुस्मारक। 

मेरी आकांक्षा का समर्थक। 

मेरा मित्र, मेरा प्रकाश स्तम्भ।

वृक्ष योनि से मुक्त।

वो एक सूखा पेड़। 

Jan 11, 2022

चाय की व्यथा


    मिश्रा जी झल्लाए 

जब पहुँचे घर बौराए 

सिर्फ़ पानी का ग्लास देख

तबियत से चिल्लाए।


चाय कहाँ है?


सहमी सी बीवी झटपट भागी रसोई

भगोना चढ़ाया, गैस जलाई, कूँटी अदरक और चीनी मिलाई 

चाय की पत्ती संग डाला दूध

फिर उबाला कई दाँई। 


चाय की पहली चुस्की 

ना थी कड़क बल्कि फुसकी। 

बीवी भी चुप, चाय भी चुप 

ना जाने क़िस्मत फूटी किसकी?


बीवी तो जा सकती मायके 

पर चाय आभागिन के मत्थे 

अनगिनत ज़ायक़े। 


कोई चाहे मीठी

कोई कड़क। 

कोई फीकी

तो कोई चटक।


कोई माँगे इंग्लिश 

कोई जाफ़रानी  

किसी की चाहत हर्बल 

तो किसी को बस हरा पानी। 


मेरी, उसकी, इसकी, सबकी 

उबलती पैदाइशें। 

उँगलियों के चिन्हों जितनी 

बेचारी चाय की फ़रमाइशें। 


किसी की आसक्ति

तो किसी का प्रेम। 

किसी की लत

तो किसी की बस औपचारिकता। 


लेकिन चाय से किसी ने पूछा कभी? 


क्या तुम्हें है पसंद दूध का संग?

दोहरा उफान।

अदरक की गरमाहट ,

या दालचीनी का घमंड?


नही। 

क्योंकि चाय भी शायद 

स्त्री है।