Dec 7, 2015

क्या करूँ और क्या ना करूँ?

असमंजस की साझेदारी
निभ रही संग लाचारी
चढ़ गयी बन जिम्मेदारी
आदत हुई ये बेकारी.

कशम्कश की साँस खिची जब
दुर्दशा का प्रारंभ हुआ तब
पत्तन की अवहेलना सुनी कब
ढोंग का प्रारब्ध बिछा अब.

काश प्रयत्न को न मारी होती लात
क्रमश स्वयं को समझने वाली मुलाकात
से की होती कुछ बात
बदलते शायद ये रंगीन हालात.

जब सम्भावना का नहीं दिखा कोई छोर
विकृत सोच ने दिया जोर
ये मैं नहीं, है कोई और
कर रहा उत्पात, मचा रहा शोर.

अंततः
विडम्बना बस यही रही
की आत्मा मेरी चल बही.

Aug 29, 2015

तुम्हारी मेरी बातें

उठे तो कुछ ऐसे 
कि जैसे 
इतवार की शिथिल सुबह . 

फिर ठहर जाय 
कि जैसे 
यादों में बिखरी इक दोपहर . 

और थमें तो इस तरह 
कि जैसे 
किसी के आने की आतुरता . 

दिन और रात 
कल और आज 
सुखी और गीली
लाल और पीली
यूँही बस चलती रहें 
तुम्हारी मेरी बातें. 

Jul 4, 2015

अम्मा

उन दिनों एक
विश्वास सा था कि,
छुट्टियों को तुम
बुलाती हो बहाने से. 

तुम्हे भी सुनानी होती
वो कहानियां
बांच रखी थी तुमने
जो इर्द गिर्द.

"गाय, बछड़ा, सीताराम.
खेत, चबैना, कच्चे आम.
सुबह दोपहर की सिमटती मसहरी.
रात से खेलती वो छोटी सी डिबरी."

आज याद है
तो बस,
उन चन्द कहानियों के
चीथड़ों का सुख और
तुम्हारे खिचड़ी की खुशबू.