सब कुछ उलझा सा लगता है सीने में,
आता नही बाहर कुछ भी।
अक्षर न तो बैठते हैं और न ही गिरत हैं,
गुमशुदा हूँ उन "भूत" ख्यालों में अभी भी।
तनहाइयों का डर किसे नही होता?
उन त्योहारों के छूटने का ग़म है हमें भी।
तुम्ही को लिखा करता था मैं हमेशा,
आज बाजारों में स्याही नही मिलती मुझे भी।
2 comments:
uppu...
you render me speechless be...
"tumhi ko likha karta tha main hamesha.
aaj bazaron mein syahi nahi milti mujhe bhi."
what a thought!...
sood. shayad yeh poem main gulzar ke kisi song se inspire hoker likhi thi...
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