Apr 22, 2012

मेरी अम्मी


काठ की इक
बूढी कुर्सी 
बगल कि मेज़ 
और 
रात के खाने से 
सजी इक प्लेट. 

इक हाथ में 
फ़ोन का रिसीवर 
और 
दुसरे में इक 
भीगा कौर. 

कुछ पहचानी धुनें 
कुछ रौशनी 
थोड़ी हलचल 
बेइन्तेहाँ प्यार. 

पतली सी चिंता 
साफ विश्वास 
अटूट गर्व 
और 
स्थिर चंचलता. 

सबकी टोकरी 
मेरी अम्मी. 

किस्मत


कभी जुड़ती 
कभी मुड़ती 
कभी खिंचती
कभी रुकती 
बिछी हैं ये लकीरें 
इस काल में 
जिसका अंत 
निश्चित है 
कभी किसी रोज़