मिश्रा जी झल्लाए
जब पहुँचे घर बौराए
सिर्फ़ पानी का ग्लास देख,
तबियत से चिल्लाए।
चाय कहाँ है?
सहमी सी बीवी झटपट भागी रसोई
भगोना चढ़ाया, गैस जलाई, कूँटी अदरक और चीनी मिलाई
चाय की पत्ती संग डाला दूध,
फिर उबाला कई दाँई।
चाय की पहली चुस्की
ना थी कड़क बल्कि फुसकी।
बीवी भी चुप, चाय भी चुप
ना जाने क़िस्मत फूटी किसकी?
बीवी तो जा सकती मायके
पर चाय आभागिन के मत्थे
अनगिनत ज़ायक़े।
कोई चाहे मीठी
कोई कड़क।
कोई फीकी,
तो कोई चटक।
कोई माँगे इंग्लिश
कोई जाफ़रानी ।
किसी की चाहत हर्बल
तो किसी को बस हरा पानी।
मेरी, उसकी, इसकी, सबकी
उबलती पैदाइशें।
उँगलियों के चिन्हों जितनी
बेचारी चाय की फ़रमाइशें।
किसी की आसक्ति,
तो किसी का प्रेम।
किसी की लत,
तो किसी की बस औपचारिकता।
लेकिन चाय से किसी ने पूछा कभी?
क्या तुम्हें है पसंद दूध का संग?
दोहरा उफान।
अदरक की गरमाहट ,
या दालचीनी का घमंड?
नही।
क्योंकि चाय भी शायद
स्त्री है।
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