Apr 29, 2010

सफ़र

जाना तो है
कि मंज़िल मिली
नहीं अब तक.

आया था यहाँ कुछ
पाने,
कुछ संजोने,
कुछ बटोरने.

फिर रुका कुछ दिन
जिसमे मिला सबसे
थोडा स्नेह,
थोड़ी आशाएं
और थोड़ा विश्वास.

आज जा रहा हूँ,
लिए
कुछ हंसी कि बूँदें
और कुछ
अटूट रिश्ते.

क्योंकि
जाना तो है
कि मंज़िल मिली
नहीं अब तक.

Apr 18, 2010

लकीरों की परछाईं

यह सुबह थी
या शाम ?
लकीरों की परछाईंयों
का स्वरुप बदला
ना था.
कुछ काला
कुछ सफ़ेद
कुछ स्याह सा.
बस कुछ ही
रंग बचे थे,
इन लकीरों में.
ज़िन्दगी की
बारिश के बाद.