आयी है अपनी बाहें बिछोये।
लेने अपने आग़ोश में मुझे।
करने प्रेम।
देने ममता।
और सुलाने।
फिर वही रात,
आयी है अपनी कालिमा संजोये।
डूबने अपने गहन अंधकार में मुझे।
दिखाने सपने।
करने विवश।
और रुलाने।
फिर उसी रात के,
दो स्वरूपों में,
मैं तलाशता हूँ,
एक ऐसी सुबह,
जो जगाये नयी चेतना।
नया उत्साह,
नयी आवश्यकताएँ।
और नया विचार।
आख़िर कब बदलेंगी परिस्थितियाँ?
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