भ्रष्ट हूँ मैं.
कल्पना से परे,
सत्य से गंभीर,
खुद से दूर,
इस भीड़ भाड़ में.
कहता हूँ मैं.
"जय श्री राम"
"सत्यवचन"
"कर्म कर्म कर्म"
दिखावे के समय में.
रहता हूँ मैं.
बहुमुखी अस्तित्व लिए,
छल कपट ओढ़े,
संकीर्ण व्यसन भरे,
कलुषित नदी में.
बहता जा रहा हूँ.
संतुष्टि है की सब,
वही हैं,
वही मैं,
वही तुम,
वही वो.
दीख रहा है.
एक ऐसा उत्सव,
जहाँ सब नंगे हैं.
हाँ, सब ठीक है.
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