May 1, 2008

विचलित मन की मनःदशा

इस बंद कमरे की,
भीनी ठण्ड के बीच।
इन कह्काशों की,
सचाई,
बोल रही है मुझसे,
की यहाँ क्या है तुम्हारा?

प्रेम से ऊँचा सच,
जो मैं देख ना पाया कभी,
आज समझकर उसको,
शांत कैसे हैं मन मेरा?

कहते हैं की सुबह का भुला,
शाम को आया तो,
अर्थ बना।
क्या मैं बन गया हूँ निरर्थक?

साक्षी है इश्वर मेरा,
जो समर्पण किया ह्रदय ने,
तुमको।
क्या उसका विश्वास जमा ना पाया मैं कभी?

विनती है मेरी तुम्हारे,
श्वेत स्वर्ण ह्रदय से की,
अपनाकर मुझको जीवन में,
क्षमा का सर्वोच्च हार पहना दो मुझे।