Dec 7, 2018

एक शहर की अवहेलना

समय जहाँ स्थिर रहता, 
गंगा सर्वदा गतिमान 
लोगों की आस्था बंधी मिलती 
समक्ष “बड़े” हनुमान। 

सड़कों की कड़ियों में उसकी, 
घुली रिश्तों की मिठास 
बैठक, चबूतरा, चौकी मनाती 
त्योहारों का उल्लास। 

उज्जड भी वहाँ सर झुकाते 
सुन बड़ों की बातें
मोहल्ले, नुक्कड़, पान-भंडार पर 
सभी अपनी गप्प हांकें। 

हुल्लड़, बकैत सभी की भाषा
कितने सहे उसने अहंकार। 
गोबर, कचरा,  “तलब” की पीक
थोड़ा अतिशियोक्ति थोड़ा रूपक अलंकार।  

पर वो शहर हमेशा जीवंत रहा 
लिए अपना इतिहास 
नाम में भी गर्व समाया
अपितु बिना "सरस्वती" साथ। 

कष्ट भले ही हुए अगणित
छोड़ चले जब विद्वान हज़ार। 
बस गए जो, हुए माहिर 
स्वार्थ के निभाते किरदार 

सांत्वना सिमटी उन अपनो में 
जो आते रहे कभी कभार 
कुछ वो रोए, कुछ शहर उनका 
यादों के फोड़ते ग़ुबार 

आज शहर जो मर गया 
तो इसलिए, 
कि 
सिर्फ़ नाम नहीं, अस्तित्व मिटा 
हम विमुख हुए