Mar 23, 2022

शर्म


दरवाज़े की घंटी 

कई बार बुदबुदाई। 

मैंने नींद भगायी,

शाम को देखा,

फिर बत्ती जलायी। 

वो तब भी नही आयी। 


दरवाज़ा खोला

तो वही खड़ा था। 

पार्सल वैसे,

जो कल लाया था। 


ख़ैर

कल ही के जैसे 

मेरे दोनो हाथों ने 

झपटे वो पार्सल और 

उसको नोटें थमायी। 

वो तब भी नही आयी। 


घंटी ने दुबारा दस्तक लगायी। 

अबकी था वो

जिसकी वजह से 

प्रतिदिन होती 

घर में सफ़ाई।

मुझे मिलता फ़िज़ूल समय,

और उसके मत्थे ज़रूरी पिराई। 


ख़ैर

कल ही के जैसे 

पलथी बिछाके, टीवी चलाया

शोर के साथ खाने को घोंटा

और नही एक कौर चबायी। 

वो तब भी नही आयी। 


तब भी नही जब, 

कल ही के जैसे 

पीछे से जाके 

चुपके से मैंने 

माँजते बरतनो की 

ज़रा सी क़तार बढ़ाई।  


पर

चुका वहीं जो पूछ लिया उससे 

भैया क्या है plan तुम्हारा?

उसने कहा सर

“भूख के साथ रोज़ यही खेलना। 

काम के बाद है मार्केट जाना

सब्ज़ियाँ लाना फिर उन्हें पकाना, 

तब खाना और सोना” 


आयी तब अचानक, 

शीतलहरी की तरह। 

रीढ़ से सीधे मर्म।

बर्फ़ बनाती

वो शर्म। 

Mar 19, 2022

बेचारी कविता


मैंने कविता लिखनी चाही, 

तो

कविता बिदक गयी।

दिल को छोड़ 

दिमाग़ में अटक गयी। 


मैंने भी हठ पकड़ ली।

लिखूँगा ज़रूर।

इस दिमाग़ का फ़ितूर। 


और फ़िर,

दिमाग़ तो है सर्वपरि,

कविता जो अटकी पड़ी

उसे मिनटों में गढ़ी। 


लेकिन कविता ठहरी चालाक 

समझ गयी दिमाग़ी ज़ोर।

दिल की बात को मरोड़कर,

कह गयी कुछ और। 


लिखी हुई उस कविता को 

खूब सजाया मंच पर। 

तब तालियाँ सबने बजायीं, 

दूसरों को देखकर। 


फिर भी अभिमान में,

समझी नही एक बात। 

कह गयी एकांत में,

कविता जो उस रात। 


कि, ग़र 

रखता उसे दिल में ही

तो वो बहती अपने आप।