Apr 8, 2023

उम्र

वो लौटना चाहता था। 

वापस।

शुरू की शुरुआत में। 


जो जिया, जो भुगता था। 

पुनः वांछित। 

मोह की बुभुक्षा में। 


वो समझ रहा था। 

बढ़ना आगे। 

व्यर्थ है अंधकार में। 


अतः कर रहा था। 

प्रयास। 

यथार्थ के अपवाद में। 


पर जो शुरू हुआ था। 

अब कहाँ था। 

उम्र के इस मुक़ाम में। 


निरंतर चलना ही था। 

सबका प्रारब्ध। 

पूर्वनिश्चित अनुपात में। 


बदलाव का ठहराव नहीं था। 

संभव। 

जीवन के इतिहास में। 

Mar 19, 2023

साल का हाल

 

साल का हाल 

पूछते नही 

बूझते हैं। 


खेतों की दरारों से

ब्याही बिटिया के अविरल ठहाकों से

विरह गीत में फूटते आंसुओं से

तो किसी खुली पड़ी नींव में उपजे पीपल के चार पत्तों से। 


साल का हाल 

बूझते नही 

पूछते हैं। 


रिश्तेदारों से त्योहारों में,

भारी होते व्यवहारों में

बुझते इश्क़ की वफ़ादारी में

तो किन्ही अटकती साँसों का लम्बी बीमारी में। 


Mar 4, 2023

अंतिम पड़ाव - एक बस स्टैंड


अजनबी शाम के साथ

मेरे बेफिक्र कदमों ने 

उस शहर से की 

इक छोटी छेड़-छाड़। 


नया था मैं 

नया था शहर 

नयी थी गालियाँपेड़ 

और सारे मकान। 

समेटे किंचित् हर कोने में 

सदियों पुरानी पहचान। 


जैसे

उसके मैदानों में खेलता वही बचपन

तो झांकता वही बुढ़ापा गलियारों में। 

रास्तों में बिछा थोड़ा परिचित उतार-चढ़ाव। 

जैसे

संगीत का तैरना हवाओं में। 

या किसी छूटी हंसी का रिझाना शरारतों में। 

या शायद किसी भूली श्वास का बहना शरीरों में। 


ऐसे किसी मोड़ पर 

चाय की टपरी से सटा

चटोरी गली से कटा

चार रस्ते से हटा

अचलितस्वच्छंद

वो इक पुराना बस स्टैंड। 


खुली खिलखिलाहट में जिसकी

था एक चुभता स्पर्श। 

खरोंचता उस टीस को

जो कभी था मेरा उत्कर्ष। 


 गिन मेरे साथ कुछ लम्हे

थी उसकी पुकार। 

नहीं कोई अपना,

सबका अपना-अपना व्यापार। 

तुम आगंतुक

लगते हो अपने

देखे-बूझे। 

क्या करोगे कुछ क्षणों 

का व्यवहार


मैं बेकार

निरंतर खोज से लाचार। 

बटोरकर उपकार

बैठ गया कुछ पल चार। 


क्या पता,

वो होगा मेरा अंतिम पड़ाव।

Aug 23, 2022

उम्मीद की उम्मीद से



शाम होने को है,

पर ना ही दिये जलाये,

और ना ही चूल्हा फूँका।

एक उम्मीद का तिरस्कार कर 

बस चारपाई बिछाई,

और पिरोने लगी बिखरी उम्मीदें। 


जली-बुझी बूढ़ी उम्मीदों के साथ, 

थोड़ी घमंडी अर्थहीन उम्मीदें। 

बिखरी परायी उम्मीदों के बराबर, 

वो सारी छोटी-छोटी उम्मीदें। 

और बीच-बीच में थोड़ी-थोड़ी 

झूठी बहकी उम्मीदें। 


अक्ल का वरदान,

लुटाने के बाद। 

बेसहारा, 

जर्जर,

अकेली,

एक उम्मीद का तिरस्कार कर 

बस बिछाई चारपाई,

और बुनने लगी उम्मीदें। 

बदलाव की। 


दूसरों की उम्मीद से,

फुसलाती और सहलाती 

स्वयं के अंश को।

इंतज़ार में उस सच्ची उम्मीद की,

जो मेरी खोज हो।


उम्मीद की उम्मीद से

थकी नही मैं,

बनी और बेशरम। 

बस एक आख़िरी उम्मीद की उम्मीद से। 


Mar 23, 2022

शर्म


दरवाज़े की घंटी 

कई बार बुदबुदाई। 

मैंने नींद भगायी,

शाम को देखा,

फिर बत्ती जलायी। 

वो तब भी नही आयी। 


दरवाज़ा खोला

तो वही खड़ा था। 

पार्सल वैसे,

जो कल लाया था। 


ख़ैर

कल ही के जैसे 

मेरे दोनो हाथों ने 

झपटे वो पार्सल और 

उसको नोटें थमायी। 

वो तब भी नही आयी। 


घंटी ने दुबारा दस्तक लगायी। 

अबकी था वो

जिसकी वजह से 

प्रतिदिन होती 

घर में सफ़ाई।

मुझे मिलता फ़िज़ूल समय,

और उसके मत्थे ज़रूरी पिराई। 


ख़ैर

कल ही के जैसे 

पलथी बिछाके, टीवी चलाया

शोर के साथ खाने को घोंटा

और नही एक कौर चबायी। 

वो तब भी नही आयी। 


तब भी नही जब, 

कल ही के जैसे 

पीछे से जाके 

चुपके से मैंने 

माँजते बरतनो की 

ज़रा सी क़तार बढ़ाई।  


पर

चुका वहीं जो पूछ लिया उससे 

भैया क्या है plan तुम्हारा?

उसने कहा सर

“भूख के साथ रोज़ यही खेलना। 

काम के बाद है मार्केट जाना

सब्ज़ियाँ लाना फिर उन्हें पकाना, 

तब खाना और सोना” 


आयी तब अचानक, 

शीतलहरी की तरह। 

रीढ़ से सीधे मर्म।

बर्फ़ बनाती

वो शर्म।