Mar 11, 2010

हिचकी

सोचने और
कुछ करने के
फासले को बढ़ता
देख,
मन ने सहसा
यह कलम उठाई
और झुका दी
इन खुशबूदार
पन्नो पर.

लिखा
फिर कुछ सोचा.
फिर लिखा और
रुक गया.

ये संकोच की
हिचकी,
मेरे विश्वास की तरह
शरमा रही है
शायद.

पर वक़्त पिघल रहा है.

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