तुम और मैं जुड़वाँ हैं।
उस दिन जब,
मैंने पहली बार,
आँखें खोली।
उस दिन शायद,
तुमने भी जन्म लिया।
हमारा मिलना तो,
निश्चित ही था।
पर कुछ प्रश्न हैं।
मन में आज।
आज, जब मुझे,
एहसास हो रहा है,
हमारे मिलन का।
शायद अब एक ही,
प्रश्न उचित हो,
आज के सन्दर्भ में।
की,
कितनो और से साक्षात्कार,
होगा तुम्हारा,
मुझसे मिलकर।
Mar 11, 2006
बदलाव की उपेक्षा
असमर्थता, जब भरती खिन्नता,
मन में।
असहाए जब बनाती मुझे,
सबके समक्ष।
तब यही प्रश्न उठता है,
भेदता है, चीखता है,
मन में।
की क्या अब भी मैं,
विकसित नही कर,
पाया हूँ स्वयं को?
असमर्थता, जब दिखाती चेहरा,
मुझ को।
विकृत कर देती यह रूप,
सबके समक्ष।
तब यही पूछता मेरा मन,
भटकता है, भागता है,
यहाँ वहां।
की क्या अब भी पहचान,
अधूरी ही रह गई है,
मेरे स्वयं की?
अब और कितना लज्जित,
होना है मुझे?
और कितनी खामोशियों की,
गहराई का अवलोकन,
और कितनी घूरती आंखों,
का भार वहां करना है मुझको?
प्राकृतिक बदलाव आसान,
नही होता शायद।
मन में।
असहाए जब बनाती मुझे,
सबके समक्ष।
तब यही प्रश्न उठता है,
भेदता है, चीखता है,
मन में।
की क्या अब भी मैं,
विकसित नही कर,
पाया हूँ स्वयं को?
असमर्थता, जब दिखाती चेहरा,
मुझ को।
विकृत कर देती यह रूप,
सबके समक्ष।
तब यही पूछता मेरा मन,
भटकता है, भागता है,
यहाँ वहां।
की क्या अब भी पहचान,
अधूरी ही रह गई है,
मेरे स्वयं की?
अब और कितना लज्जित,
होना है मुझे?
और कितनी खामोशियों की,
गहराई का अवलोकन,
और कितनी घूरती आंखों,
का भार वहां करना है मुझको?
प्राकृतिक बदलाव आसान,
नही होता शायद।
तुम्हारी याद
आखिर कब तक
झोंकता रहूँगा मैं.
स्वयं को इस
आग में?
जो ना जाने कितने
जन्मो से जलती
आ रही है.
कभी न ख़त्म होने
वाली आग.
रह-रहकर भड़क
उठती है सीने
में.
धधकती है तो
कभी थमती ही नहीं.
परिणाम.
सुलग रहा हूँ
मैं हरपल
तुम्हारी याद में.
झोंकता रहूँगा मैं.
स्वयं को इस
आग में?
जो ना जाने कितने
जन्मो से जलती
आ रही है.
कभी न ख़त्म होने
वाली आग.
रह-रहकर भड़क
उठती है सीने
में.
धधकती है तो
कभी थमती ही नहीं.
परिणाम.
सुलग रहा हूँ
मैं हरपल
तुम्हारी याद में.
आज की रात का स्वरूप
फिर वही रात,
आयी है अपनी बाहें बिछोये।
लेने अपने आग़ोश में मुझे।
करने प्रेम।
देने ममता।
और सुलाने।
फिर वही रात,
आयी है अपनी कालिमा संजोये।
डूबने अपने गहन अंधकार में मुझे।
दिखाने सपने।
करने विवश।
और रुलाने।
फिर उसी रात के,
दो स्वरूपों में,
मैं तलाशता हूँ,
एक ऐसी सुबह,
जो जगाये नयी चेतना।
नया उत्साह,
नयी आवश्यकताएँ।
और नया विचार।
आख़िर कब बदलेंगी परिस्थितियाँ?
Mar 3, 2006
कह दिया मैंने
भ्रष्ट हूँ मैं.
कल्पना से परे,
सत्य से गंभीर,
खुद से दूर,
इस भीड़ भाड़ में.
कहता हूँ मैं.
"जय श्री राम"
"सत्यवचन"
"कर्म कर्म कर्म"
दिखावे के समय में.
रहता हूँ मैं.
बहुमुखी अस्तित्व लिए,
छल कपट ओढ़े,
संकीर्ण व्यसन भरे,
कलुषित नदी में.
बहता जा रहा हूँ.
संतुष्टि है की सब,
वही हैं,
वही मैं,
वही तुम,
वही वो.
दीख रहा है.
एक ऐसा उत्सव,
जहाँ सब नंगे हैं.
हाँ, सब ठीक है.
कल्पना से परे,
सत्य से गंभीर,
खुद से दूर,
इस भीड़ भाड़ में.
कहता हूँ मैं.
"जय श्री राम"
"सत्यवचन"
"कर्म कर्म कर्म"
दिखावे के समय में.
रहता हूँ मैं.
बहुमुखी अस्तित्व लिए,
छल कपट ओढ़े,
संकीर्ण व्यसन भरे,
कलुषित नदी में.
बहता जा रहा हूँ.
संतुष्टि है की सब,
वही हैं,
वही मैं,
वही तुम,
वही वो.
दीख रहा है.
एक ऐसा उत्सव,
जहाँ सब नंगे हैं.
हाँ, सब ठीक है.
चिंतित : प्रत्येक क्षण
तुम्हे भूलना ही श्रेयस्कर है अब
दोनों के लिए.
पर जो कसक उत्पन्न होती है
कल्पनामात्र से
क्या वो शक्ति देगी?
अलग पथ पर
अलग दिशा में
पृथक पृथक
बढ़ने को?
कोशिश मैंने की है कई बार
अकेले ही.
पर जो टीस प्रकट होती है
मस्तिष्क में
क्या वो जीने देगी?
दुसरे साथी के साथ
दूसरी दुनिया में
कदम कदम
चलने को?
अनिभिज्ञ नहीं हूँ सच से,
देख सकता हूँ.
पर जो प्रचंड कडुवाहट होगी
हर सांस में
क्या वो चेतनाशुन्य नहीं करेगी?
प्रत्येक क्षण
प्रत्येक दिवस
घुट घुट
मरने को?
वो कहते हैं की
जो शुरू हुआ है उसका
अंत सुनिश्चित है.
बस अब एहसास हुआ
मैं क्यों हूँ चिंतित.
दोनों के लिए.
पर जो कसक उत्पन्न होती है
कल्पनामात्र से
क्या वो शक्ति देगी?
अलग पथ पर
अलग दिशा में
पृथक पृथक
बढ़ने को?
कोशिश मैंने की है कई बार
अकेले ही.
पर जो टीस प्रकट होती है
मस्तिष्क में
क्या वो जीने देगी?
दुसरे साथी के साथ
दूसरी दुनिया में
कदम कदम
चलने को?
अनिभिज्ञ नहीं हूँ सच से,
देख सकता हूँ.
पर जो प्रचंड कडुवाहट होगी
हर सांस में
क्या वो चेतनाशुन्य नहीं करेगी?
प्रत्येक क्षण
प्रत्येक दिवस
घुट घुट
मरने को?
वो कहते हैं की
जो शुरू हुआ है उसका
अंत सुनिश्चित है.
बस अब एहसास हुआ
मैं क्यों हूँ चिंतित.
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