"आज तुम शब्द दो
ना दो
फिर भी मैं कहूँगा" - सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय'
May 26, 2007
सुबह का सन्नाटा
यह कैसी सुबह है? सब शांत, सब विरह, सब सूना। आख़िर वोः आवाजें गई कहाँ? पक्षी गए कहाँ ? मंत्रों उचारण गए कहाँ ? सब इतना शिथिल, मानो बंद हवा ने, रोक दी हो सांसें।
जैसे की निरर्थक हो जाना, बिटिया की बिदाई के बाद। ये कैसी सुबह है?
1 comment:
Good thought...Simple but nicely related to an absolutely different aspect-bidai...
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