May 26, 2007

मौसम की धारा

गर्मी का एहसास,
उत्पन्न होता है,
धुप से नही
रुकी हवा से नही,
बंद कमरे से भी नही।
बल्कि जन्म लेता है
यहाँ अन्दर।
भीतर एक तपती आत्मा,
सुलगती है और पैदा करती है असहनीय गर्मी।

सर्दी का प्रकोप,
महसूस होता है,
बर्फीली हवाओं से नही,
गहन कुहरे से भी नही,
छिपे सूरज से भी नही,
सर्दी तो आती है,
तुम्हारी सांसें बनकर
रोम रोम को छूकर,
कंपकपाती हैं और,
गलाती हैं यह तीक्ष्ण सर्दी।

वसंत की चेतना,
क्षणभंगुर रहती हैं,
पतझर के भय से नही,
समयाभाव से नही,
प्रेम की विवशता से भी नही।
हरयाली तो बस सीमित हैं,
तुम्हारी आवाज़ तक।
जो प्रत्यक्ष हैं वर्तमान में,
ना एक क्षण आगे, ना एक क्षण पीछे।

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