शायद अपनी गली का मकान।
भटकता फिर रहा हूँ मैं,
इन गुमसुम सन्नाटों के बीच।
खोजता फिरता हूँ मैं,
उस पहचान को शायद,
जो कभी मेरी थी ही नही।
नदियाँ जो बहती आयी हैं,
सदियों से,
समय को चीरती, भेदती,
और परास्त करती।
आज सूखने को हैं।
और इन सब बहावों के बीच,
एक स्थिरता सी बस गई है मुझमे।
जो ना रुकने देती है, और,
ना ही चलने देती है।
सम्भव है की शायद,
खो चुका हूँ मैं,
उस जीवन शैली को,
जो कभी मैंने जिया ही नही।
1 comment:
benares ki yaad gayi bidu..lekin woh jeevan shaeli to ji thi humne kabhi...ye shayad jante hue ki hum ye nahin hain..hum kuch aur hain...
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