कितने दिन बीत गए,
बस यूँही बैठे बैठे।
कदम उठाते ही नही,
किसी दिशा की ओर।
चिंतन की प्रक्रिया कुछ,
लम्बी बन पड़ी है।
हाथ लगता ही नही,
किसी चेतना का छोर
बाहर झांकता हूँ तो,
सब आसन लगता है।
अन्दर ही उलझी पड़ी है,
खोखले विचारों की डोर।
कुछ नही करता हूँ मैं,
दूर दीख रही है रौशनी।
कदाचित इसी तरह,
ध्वंस करगा मुझे यह शोर।
3 comments:
इतनी अच्छी हिन्दी कविता पढे बडे दिन बीत गये थे!!
andar hi uljhi padi hai
khokhle vicharon ki dor.
---very true.
Good hindi after a long time. Even I feel that the accident of bumping onto good blogs should be frequent. Keep writing.
Ur forst stanza sounds so appropriate to wht i am facing.
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