Mar 19, 2022

बेचारी कविता


मैंने कविता लिखनी चाही, 

तो

कविता बिदक गयी।

दिल को छोड़ 

दिमाग़ में अटक गयी। 


मैंने भी हठ पकड़ ली।

लिखूँगा ज़रूर।

इस दिमाग़ का फ़ितूर। 


और फ़िर,

दिमाग़ तो है सर्वपरि,

कविता जो अटकी पड़ी

उसे मिनटों में गढ़ी। 


लेकिन कविता ठहरी चालाक 

समझ गयी दिमाग़ी ज़ोर।

दिल की बात को मरोड़कर,

कह गयी कुछ और। 


लिखी हुई उस कविता को 

खूब सजाया मंच पर। 

तब तालियाँ सबने बजायीं, 

दूसरों को देखकर। 


फिर भी अभिमान में,

समझी नही एक बात। 

कह गयी एकांत में,

कविता जो उस रात। 


कि, ग़र 

रखता उसे दिल में ही

तो वो बहती अपने आप। 

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