शब्दों ने ठानी
कबड्डी की पारी
“अवहेलना” के दंगल में
सबकी आखिरी सवारी .
कुछ
गुट बन गए .
जैसे “किंकर्तव्यविमूढ़” ने
उठाया
प्रतिष्ठा का झंडा
जब उज्जडों ने
ताना
अशिष्टता का डंडा .
लाचार शब्दों ने तब संजोया
बचा-खुचा
स्वाभिमान
और विशिष्ट शब्द निचोड़ते रहे
अपना अभिमान .
शब्द वही ललकारते
जिनमे था सामर्थ्य
बिलखते, मुंह सिकोड़ते, गुर्राते
शब्द
जो निरर्थक.
“अवलोकन” की परिस्थिति
बनी विकट गंभीर
कदाचित शब्दों में मनमुटाव
करता “भाषा” अधीर.
इस विकृत आपा धापी में
शब्द लूटते मौज
और भाषा
अपनी “अस्मिता”.
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