खामोश पानी की,
एक धारा ....
गुमसुम,
उछलती - बिलखती,
कूदती - फांदती,
दौड़ती,
बिना आवाज़ ....
यहाँ भीतर,
मेरे अन्दर।
शिथिल चेतना,
की शिकार।
किसी खोई हुई,
पहचान का प्रकार।
बहती निरंतर ....
यहाँ भीतर,
मेरे अन्दर ।
आश्चर्य की !!
जीवन का एक,
पर्याय यह भी।
खामोश पानी की एक धारा ।
कितने दिन बीत गए,
बस यूँही बैठे बैठे।
कदम उठाते ही नही,
किसी दिशा की ओर।
चिंतन की प्रक्रिया कुछ,
लम्बी बन पड़ी है।
हाथ लगता ही नही,
किसी चेतना का छोर
बाहर झांकता हूँ तो,
सब आसन लगता है।
अन्दर ही उलझी पड़ी है,
खोखले विचारों की डोर।
कुछ नही करता हूँ मैं,
दूर दीख रही है रौशनी।
कदाचित इसी तरह,
ध्वंस करगा मुझे यह शोर।
आज की अनुभूति,
याद दिलाती है,
उन दिनों की।
वो दिन - जब हम सभी,
इन सितारों से ढकी,
छत के नीचे,
बैठे,
करते थे गुलज़ार,
उन रातों को,
जिनकी सुबह,
का ठिकाना ना,
हुआ करता था।
आज हम सभी,
जब उसी,
छत के नीचे,
बिखरे पड़े हैं,
दूर - दूर,
अलग - थलग,
अपनी अपनी सीमाओं में बंधे।
तब ज़रूर याद करते होंगे,
उन रातों को।
कितना निर्दयी दीख,
पड़ता है,
इश्वर का ये न्याय,
की मिलना है अगर,
तो बिछड़ने का ग़म,
साथ सहना हे पड़ेगा।
आश्वस्त हूँ,
तो यही सोचकर,
समझकर की,
चलो,
दूर ही सही,
पर सब जी रहे हैं,
प्रतिपल,
अग्रसर हो रहे हैं,
एक लक्ष्य की ओर।
काश ऐसा ही हो,
की मिले,
उन सबको,
वही मंजिलें जो,
सँजोकर राखी हैं,
हम सभी ने,
मन के उस कोने में,
जिसका शायद,
ठिकाना हमें ख़ुद,
ही मालूम नही।
अब अगर 'वोह' रातें,
आए भी तो,
एक ऐसा सवेरा,
लेकर,
जिसमे छिपी राखी हों,
साडी खुशिया,
नई आकांक्षाएं,
नए पड़ाव,
और नई दिशायें।
रातों से सुबह,
का सफर,
कभी अलग भी,
हो सकता है,
आज पता चला।