Mar 4, 2023

अंतिम पड़ाव - एक बस स्टैंड


अजनबी शाम के साथ

मेरे बेफिक्र कदमों ने 

उस शहर से की 

इक छोटी छेड़-छाड़। 


नया था मैं 

नया था शहर 

नयी थी गालियाँपेड़ 

और सारे मकान। 

समेटे किंचित् हर कोने में 

सदियों पुरानी पहचान। 


जैसे

उसके मैदानों में खेलता वही बचपन

तो झांकता वही बुढ़ापा गलियारों में। 

रास्तों में बिछा थोड़ा परिचित उतार-चढ़ाव। 

जैसे

संगीत का तैरना हवाओं में। 

या किसी छूटी हंसी का रिझाना शरारतों में। 

या शायद किसी भूली श्वास का बहना शरीरों में। 


ऐसे किसी मोड़ पर 

चाय की टपरी से सटा

चटोरी गली से कटा

चार रस्ते से हटा

अचलितस्वच्छंद

वो इक पुराना बस स्टैंड। 


खुली खिलखिलाहट में जिसकी

था एक चुभता स्पर्श। 

खरोंचता उस टीस को

जो कभी था मेरा उत्कर्ष। 


 गिन मेरे साथ कुछ लम्हे

थी उसकी पुकार। 

नहीं कोई अपना,

सबका अपना-अपना व्यापार। 

तुम आगंतुक

लगते हो अपने

देखे-बूझे। 

क्या करोगे कुछ क्षणों 

का व्यवहार


मैं बेकार

निरंतर खोज से लाचार। 

बटोरकर उपकार

बैठ गया कुछ पल चार। 


क्या पता,

वो होगा मेरा अंतिम पड़ाव।

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