उजाले ने बदली चाल,
जैसे बहती राल,
छोड़ बुद्धि की ताल,
रची साजिश,
फूंका धैर्य,
दागा मन,
चढ़ा मस्तक और बदला काल।
जिसमें।
हर कोई उजाला थूक रहा,
यत्र, तत्र, सर्वत्र।
या फिर, मूक बना घोंट रहा,
बिना किसी अर्थ।
“अहो रूपम्, अहो ध्वनि”
की भनभनाती भगदड़।
बुन रही एक नयी आस्था,
कर बंद आँखें, निधड़क।
तभी शायद।
क्षुब्ध तारों की ओज जितना
ज्ञान का आलोक पर्याप्त, बस उतना।
आह ! कैसी विडम्बना?
क्षुब्ध तारों की ओज जितना
ज्ञान का आलोक पर्याप्त, बस उतना।
आह ! कैसी विडम्बना?
जितना कम ज्ञान,
उतना वो सर्वोत्तम विद्वान?
कदाचित मैं ही हूँ,
इस अलौकिक जगत का ध्रुव तारा।
अपना ऑक्सिजन मास्क छोड़,
प्रयत्नशील हूँ,
बनने को अचल सहारा।
5 comments:
अति सुन्दर और शानदार कविता
In search or in quest of the truth. Beautifully penned.
Amazing poem.. 👌👍
Niceeee :)
Bahaut achchi kriti hai
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