खूँटी पर टँगी शर्ट
इतराती, बलखाती
दोस्त उन हवाओं की,
जो दुबक कर, आहिस्ता - आहिस्ता
घुसती,
दरवाज़े की ओढ़ से ।
वो पुश्तैनी दरवाज़ा
झुँझलाता, गुर्राता
मजबूर उन आवाज़ों का,
जो उफन कर,
बहती,
मोहल्ले के मर्म से ।
मोहल्ला,
उसकी गलियाँ,
और उनमें से,
गुज़रता वक़्त, स्थिर ही रहा ।
अपितु,
उस बंद कमरे में,
बिछी तख़्त, साथ लगी दीवार की सीलन,
उससे सटी कुर्सी, के बग़ल का दरिचा,
सबने महसूस की,
एक उलझी कश्मकश,
एक गूँगा मतभेद,
और विभिन्न परिपक्वता ।
जैसे पापा का अद्भुत सारल्य,
और मेरी आकुल जटिलता ।
जैसे पापा का अद्भुत सारल्य,
और मेरी आकुल जटिलता ।
1 comment:
Brilliant Uppu !
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