Jul 3, 2012

बुढ़ापे की दस्तक


चलते चलते
महसूस यूँ हुआ 
परछाई मेरी 
अब बढ़ चली है. 

कल थी दबी यंही 
मेरे पैरों तले
अस्थिर, चंचल, बदलती रूप. 
आज पिघली पड़ी है 
अलसाई, सहमी, निरर्थक. 

डरता हूँ मैं 
कि कहीं ये विलीन 
ना हो जाये
उस अँधेरे में 
जो बढ़ा चला आ रहा है 
मुझे दबोचने. 

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