एक यायावर
"आज तुम शब्द दो ना दो फिर भी मैं कहूँगा" - सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय'
Aug 22, 2010
तितर बितर
लम्हों की पहचान
उनके अस्तित्व
से परे
निर्भर होती है -
उन्ही लम्हों में
जीवित "मैं" और "तुम" पर.
एक पहचान ऐसी
जो जीने को
मजबूर कर दे.
एक ऐसी
जो कहे कि
अब बहुत हुआ.
Aug 15, 2010
समय
समय पिघला नहीं,
वो तो भाप बनकर
उड़ गया .
कुछ बदला,
हवा में.
शायद पारा बढ़ा.
और शायद कुछ बोझ.
मैं भी हुआ कुछ अलग.
शायद कमज़ोर.
समय की बर्फ को
जमाना हि एक
भूल थी शायद.
क्योंकि समय पिघला नहीं,
वो तो भाप बनकर
उड़ गया .
Newer Posts
Older Posts
Home
Subscribe to:
Posts (Atom)