चंदा मामा आते,
पुए पकाते,
और मुझे सुलाते।
माँ की लोरियाँ,
थपथपाती,
पिघलाती,
ले जाती,
दूर, बहुत दूर।
माँ कहती,
निंदिया के अनेको घरौंदे।
सब में छुपी,
अनोखी कहानियाँ।
चुपके-चुपके जा,
चुरा ला,
और फिर सबको सुना।
मैं बुनती,
कुछ अटपटे सवालों के तानेबाने।
होना था बड़ा
माँ जैसा।
जल्दी जल्दी,
उड़ना,
और फिर दुनिया को छूना।
मैं और माँ,
दोनो की अपनी ख्वाहिशें।
उनको निंदिया,
मुझे सपनों का सातवाँ घोड़ा।
एक नया,
आसमाँ,
और चंद्रमा मेरा अपना।
आज,
निंदिया के छुटपुट टुकड़ों
में टटोल रही हूँ,
वही कहानियाँ
जो चुरा कर लायी थी
कभी माँ के लिए।