इक शाम ढली
और बस
ये शहर बन बैठा
अजनबी ।
किसी किस्म की
नाराज़गी का
एहसास बिखेरता
रूठा, मगर
उदास ।
कुछ ना कहता
बस, देखता
मुझे हर वक्त
गुज़रते अपने
ईर्द गिर्द ।
किसी किस्म की
खामोशी का
शोर मचाता
शायद करता इंतज़ार
कि मैं ना देखुं
उस नये आसमान को
जो अब मेरा नया
प्रेम है ।
और बस
ये शहर बन बैठा
अजनबी ।
किसी किस्म की
नाराज़गी का
एहसास बिखेरता
रूठा, मगर
उदास ।
कुछ ना कहता
बस, देखता
मुझे हर वक्त
गुज़रते अपने
ईर्द गिर्द ।
किसी किस्म की
खामोशी का
शोर मचाता
शायद करता इंतज़ार
कि मैं ना देखुं
उस नये आसमान को
जो अब मेरा नया
प्रेम है ।