इन उमसती शामों में,
उफनती वेदनाएं,
कहती हैं,
हर बुझते क्षण से,
की,
अब और नही,
और नही अब कह सकती मैं,
और नही अब तप सकती मैं,
और नही अब सज सकती मैं,
करके विवशता का श्रृंगार।
अब तो बुझा दो,
इन सिसकियों को, अपने,
बदलते वेग से।
बुझो नही अब जलो।
जलो और बिखेर दो आलोक,
यहाँ वहां,
सर्वत्र,
और खिलखिला दो मुझे।